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45 आरक्षकों की बर्खास्तगी दोषी कौन और किसको मिला न्याय

 

 

 

 

 

 

 

योगेश शर्मा नाम ही काफी है सत्यमेव जयते

 

*आखिर परिवहन विभाग में 45 आरक्षकों की बर्खास्तगी से किसको मिला न्याय*
न्याय में देरी न्याय से वंचित के समान है यह एक कानूनी कहावत है और यह कहावत परिवहन विभाग में बर्खास्त हुए 45 आरक्षकों के मामले में बिल्कुल सटीक बैठ रही है जिसमे ग्याहर साल बाद हुए एक फैसले के चलते 45 आरक्षकों की जीविका पर संकट आ गया । और उनके परिवार भी इस फैसले की वजह से आहत हुए हैं पर उनकी सुनने वाला कोई नही है आखिर आज 11 साल बाद यह आरक्षक अपनी आजीविका ढूढने कँहा जाएं इस अधेड़ उम्र में अब नौकरीं पर इन्हें कौन रखेगा और तो और अब यह इस उम्र में क्या काम सीखे जिससे इनकी आजीविका चल सके तथा इनके परिवार का भरण पोषण हो सके पर इससे किसी को क्या । इस फैसले का दूसरा पहलू जिसके पक्ष में फैसला आया आखिर में क्या न्याय उसको ही मिल पाया । नही , जिस हिमान्द्री राजे व अन्य महिलाओं द्वारा याचिका लगाई गई उन्हें भी कोई फायदा इस फैसले से नही मिलता क्योंकि 11 साल बाद अब वह भी दुबारा निकाली जा रही जगहों के लिए उम्र सीमा की वजह से आवेदन नही कर सकती और तो और इस फैसले में किसी को जिम्मेदार हुई इस अवैध भर्ती का दोषी मानकर सजा नही दी गयी । सजा मिली तो उस सिपाही को जो खुद इस अव्यस्था और भ्रष्टाचार का शिकार था आखरी में केवल उनकी नौकरीं गयी उस लचर व्यवस्था के मूल कारणों पर कोई प्रभाव इन फैसले से नही पड़ा ।

*राजनैतिक निर्णयों में उदासीनता है मूल कारण*
जी हाँ यदि इन 45 आरक्षकों पर आज यह संकट आया है तो उसका बीज इस राजनैतिक व्यवस्था का ही बोया हुआ है समस्या के मूल में जाएं तो पता चलता है जब तात्कालिक परिवहन के आला अफसरों ने गलती 2012 में भर्ती में की और हाइकोर्ट ने इस गलती को 2014 में ही बता दिया पर यह राजनैतिक उदासीनता और अपने अफसरों को किसी भी हद तक जाकर बचाने की मनसा ही थी कि तात्कालिक प्रदेश की लीडरशिप कोई ठोस निर्णय नही ले सकी । जिसके चलते एक गलत तरीके से की गई भर्ती को कानूनी दांव पेंचों से सालों टाला जाता रहा । जिसका नतीजा आज हमारे सामने है कि किसी को भी न्याय नही मिल पाया और नाही जानबूझकर भर्ती में गड़बड़ी करने वाले अधिकारी ही दोषी ठहराया जा सके । राजनीतिज्ञ अगर 2014 में हाइकोर्ट के निर्णय के बाद ही अपने अफसरों की गलती मान कर इस समस्या का निराकरण खोजते तो शायद उस समय इन आरक्षकों पर भी उतना प्रभाव नही पड़ता और याचिका कर्ता को भी फिर से भर्ती प्रक्रिया में शामिल होने का मौका मिलता पर अब यह मुमकिन नही है पर हमारी तो मध्य्प्रदेश सरकार से गुजारिश की इन 45 आरक्षकों के बारे में भी सोचे ।

*परिवहन विभाग पर खबर लिखने वाले स्वार्थ से ऊपर उठकर समाज हित मे लिखें तो बेहतर*
वैसे तो यह बहस बहुत बड़ी है पर यदि परिवहन विभाग के खिलाफ लिखने वाले पत्रकारों की बात करें तो कुछ पत्रकारों की मनसा खबर लिखने के पीछे महीने का बड़ा लिफाफा होती है जिसके चलते वो केवल नकरात्मकता वाली खबरें लिख लिफाफे का वजन बढ़ाना चाहते है । एक पत्रकार के तौर पर उम्मीद की जाती है कि पत्रकार की खबर में कुछ समाज के लिए होगा पर यह ब्लैकमेलर पत्रकार अपने स्वार्थ के चलते किसी अधिकारी कर्मचारी पर निजी टिप्पडी करने से भी नही चूकते आखिर किसी को निजी जिन्दगी से समाज का क्या भला होगा यह तो वो ही जाने । 45 आरक्षकों की भर्ती के मामले में किसी भी पत्रकार ने 11 साल तक कोई आबाज क्यों नही उठाई । जब उनका काम था कि तात्कालिक शासन प्रशासन को चेताएँ की गलत हो रहा है तब तो वो अपने आकाओं को खुश करने के लिए चुप रहे पर जब आज उसी विभाग से डबल रोटी मिलनी बंद हो गयी तो नारायण नारायण चिल्लाने लगे और तो और सूत्रों के सूत्र भी बाहर आ गए मेरा तो मानना है कि सबसे बड़ा अंकुश प्रदेश को राजधानी की मीडिया शासन पर लगती है क्योंकि वह इस शासन के सबसे करीब होती है पर मुझे नही लगता कि वह अपना रोल निभा रही है हाँ यह जरूर है कि वी किसी के लिए अपना रोल जरूर निभा रही है जिसमें उसको क्या मिला यह लिखना शायद जरूरी नही है पर आज भी कई पत्रकार उसी पत्रकारिता को तव्वजों देते है जिसमे समाज के मुद्दे संवेदनशीलता से समय पर उठाए जाते है ताकि शासन के ऊपर अंकुश लगा रहे । यदि शासन भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए कोई नई नीति लाये तो उसका समर्थन करे और यदि किसी विषय पर समाज में किसी के साथ गलत हो तो उसे भी पूर्ण ताकत से उठाए ।

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